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हर इवेंट का सियासी श्रेय लेने की सोच का नतीजा है बेंगलुरू हादसा

Updated on 08-06-2025 12:29 AM
कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू में आईपीएल में राॅयल चैलेंजर्स बेंगलुरू (आरसीबी) की जीत का जश्न अगर मातम में तब्दील हो गया और स्टेडियम के बाहर मची भगदड़ में 11 निर्दोष लोगों  की जानें चली गईं  तो इसके पीछे प्रशासनिक लापरवाही है ही, असल कारण खेल में मिली जीत को परोक्ष रूप से राजनीतिक विजय में तब्दील करने की घटिया सोच है। कर्नाटक में फिलहाल कांग्रेस की सरकार है, लेकिन दुर्भाग्य से आज भारत में कोई भी राजनीतिक पार्टी इस निम्नस्तरीय सोच और उसे जल्द से जल्द  राजनीतिक रूप से भुनाने की दूषित मानसिकता से मुक्त नहीं है। वरना कोई कारण नहीं था कि आईपीएल फाइनल के दूसरे ही दिन आनन- फानन में बिना समुचित प्रबंध और आयोजना के आरसीबी की‍ विक्ट्री परेड निकाली जाए, गनीमत थी कि पुलिस के इंकार के बाद वह रद्द हो गई और कार्यक्रम स्टेडियम में विजेता टीम के स्वागत तक सीमित हो गया। स्वागत भी ऐसा, जिसे स्वीकार कर अब आरसीबी टीम खुश होने के बजाए शर्मिंदा ज्यादा है। आज राजनेताअो की संवेदनाएं कितनी कुंद हो चुकी है, यह इस बात का निकृष्ट उदाहरण है कि जब सारा देश मीडिया के माध्यम से जिस चिन्ना स्वामी स्टेडियम के बाहर भगदड़ में कुचले मृत शरीरो और घायलो को निकाले जाते देख रहा था, वहीं स्टेडियम के भीतर आरसीबी टीम को मिली जीत की ट्राॅफी हाथों में उठाकर कर्नाटक के उपमुख्‍यमंत्री डी. शिवकुमार गदगद हो रहे थे। उसी दौरान राज्य के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया भी विजेता टीम के साथ फोटो सेशन करवा कर प्रसन्न थे। क्या सरकार के सूचना तंत्र ने सीएम और डिप्टी सीएम को बाहर घट रहे इस भयंकर हादसे की तत्काल  सूचना  नहीं दी होगी, क्या ‍स्टेडियम के भीतर स्वागत करवा रहे खिलाडि़यों को भी बाहर हो रही भगदड़ की जरा भी भनक नहीं लगी होगी? आज जब हर आदमी, हर दूसरे मिनट सोशल मीडिया चेक करने की लत से पीडि़त है, क्या तब स्टेडियम के अंदर मौजूद कोई भी व्यक्ति बाहर दम तोडते खेल प्रशंसको की पीड़ा से संवेदित नहीं था? कायदे से तो भगदड़ की पहली सूचना मिलते ही आयोजकों को तत्काल स्वागत समारोह रद्द कर हादसे में  मृत लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त कर कार्यक्रम समाप्त कर देना चाहिए था। लेकिन ऐसा करने के बजाए कर्नाटक के डीसीएम सफाई दे रहे थे कि हादसे की जानकारी मिलने के बाद कार्यक्रम 10 मिनट में ही निपटा दिया गया? लेकिन दस ‍िमनट भी क्यों? इसका जवाब न तो कर्नाटक सरकार के पास है और न ही इसकी मूल आयोजक बताई जा रहे आरसीबी टीम की फ्रेचाइंजी कंपनी यूनाईटेड स्पिरिट्स लि. के पास है। हालांकि रात में कंपनी की अोर से मृतकों के प्रति शोक व्यक्त करने की औपचारिकता निभाई गई। 
सवाल यह भी उठ रहा है कि आरसीबी ने भले ही 18 साल बाद आईपीएल ट्राॅफी उठाई हो, लेकिन विजेता टीम का भव्य स्वागत करने की इतनी जल्दी क्या थी? बताया जा रहा है कि यह सब इसलिए किया गया कि आरसीबी फ्रेंचाइजी कंपनी सभी विजेता खिलाडि़यों को सम्मानित कर इसे अपने पक्ष में मेगा इवेंट में तब्दील करना चाहती थी। दूसरे, टीम के चार विदेशी सदस्यों को स्वदेश लौटने की जल्दी  थी, इसलिए भी ताबड़तोड़ तरीके से यह जश्न आयोजित किया गया। चूंकि इस टीम के नाम के साथ बेंगलुरू भी जुड़ा हुआ है, इसलिए इसे कन्नड अस्मिता और वर्चस्व के साथ जोड़ने का परोक्ष राजनीतिक प्रयोग भी हुआ। जबकि हकीकत में आरसीबी न तो किसी कन्नड व्यक्ति  की कंपनी है और न ही टीम में कोई कन्नड‍ खिलाड़ी है। मूलत: इस टीम की मालिक बैंक घोटाले में भगोड़े विजय माल्या के पास थी।  विजय जरूर कन्नडिगा हैं। लेकिन बाद में उन्होंने यह कंपनी ब्रिटिश मल्टीनेशनल कंपनी जायंट डिएगो को बेच दी है। अब यूनाइटेड स्पिरिट्स उसी एमएनसी की सहायक कंपनी है। यही नहीं, इस टीम के 11 में से चार खिलाड़ी तो विदेशी हैं और बाकी 7 सात गैर कन्नड और गैर कर्नाटकी हैं। टीम की कप्तानी मप्र के रजत पाटीदार के पास है तो टीम के हीरों विराट कोहली दिल्ली के हैं।  
बावजूद इस हकीकत के यह माहौल बनाया गया कि यह जीत कर्नाटक की महाविजय है। ये हाइप बनाया गया कि आरसीबी टीम ने आईपीएल ( जो अपने आप में पैसे का ही पूरा खेल है) ट्राॅफी जीत कर इतिहास रच दिया है। अघोषित रूप से इसमें अहमदाबाद के नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में आरसीबी द्वारा पंजाब किंग्स को हराने का सियासी आत्मिक  सुख भी शामिल था।   
आरसीबी और राज्य सरकार के इस ‘कर्नाटक गौरव इवेंट हाइप’ में मीडिया भी बराबरी से हिस्सेदार था। लिहाजा यह तस्वीर पेंट की जाने लगी कि आईपीएल की जीत किसी अंतरराष्ट्रीय ट्रााॅफी जीतने से कमतर नहीं है। सोशल मीडिया में तो यह जीत पागलपन की तरह छा गई। यही कारण था कि बेंगलुरू के अधिकांश युवा विजेता टीम और अपने नेताअों की एक झलक पाने के लिए भीड़ में कुचले जाने के लिए भी तैयार हो गए। यहां एक सवाल यह भी है कि जिन खिलाडि़यों को खेलते हुए महीने भर से लोग तकरीबन रोज टीवी पर देख रहे हैं, सोशल मीडिया पर उनके सारे कारनामे वायरल हैं, बावजूद इसके युवा सीधे उन्हें देखने के लिए इस तरह क्यों पगलाए रहते हैं? ऐसा कौन सा आकर्षण है, जो सेलेब्रिटी खिलाड़ी के करीब जाकर या उसे छूकर ही पूरा हो सकता है, जबकि पूरी विजेता टीम एक बंद बस में हाथ हिलाते गुजरने वाली थी। यानी बाहर से ज्यादा कुछ नहीं दिखना था, फिर भी तीन लाख से ज्यादा लोग, जिनमें ज्यादातर युवा थे, सब काम छोड़कर  स्टेडियम के बाहर क्यों जमा हो गए? इनमे से  कई तो पे़ड़ों पर चढ़कर और जिसे जहां जगह मिले वहां घुसकर खिलाडि़यों को देखना चाहता था। ऐसा पागलपन तो उस समय भी नहीं देखने को ‍िमला था, जब भारत ने 1983 में पहली बार कपिलदेव के नेतृत्व में वन- डे वर्ल्ड कप जीता था। तब टीवी नया- नया आया ही था और सोशल मीडिया का अता पता नहीं था। हर भारतीय खुश था, लेकिन संयत भाव से। युवाअोंकी निर्बुद्ध दीवानगी के इस यक्ष प्रश्न का उत्तर शायद यही है कि सोशल मीडिया के गुलाम हो चुके युवा अपने चहेते स्टार के साथ या उसके अगल बगल, विचित्र मुद्राअोंमें फोटो खिंचवा कर उसे जल्द से जल्द सोशल मीडिया में पोस्ट कर ज्यादा से ज्यादा लाइक्स और व्यूज की खयाली दुनिया के स्वर्गिक आनंद उपभोगना चाहते हैं। यह तर्कातीत ऐहिक दुनिया है। दुर्भाग्य से इन तमाम सोशल मीडिया वीरों में चंद लोगों को छोड़ दें तो कोई भी आज विराट कोहली या रजत पाटीदार बनने के लिए पसीना बहाना और अडिग साधना नहीं करना चाहता। क्योंकि उसमें मेहनत लगती है, मोबाइली जिंदगी को दूर रखना पड़ता है। जबकि वो एक फोटो खिंचवाकर ही क्षणभर में विराट बनने का क्षणिक सुख भोगकर ही संतुष्ट हैं। रील बनाने के लिए जान गंवाने का जोखिम उठाना, बिना सोचे समझे कहीं भी वीडियो बनाना और तुरंत सोशल मीडिया पर पापुलर हो जाने की अजब और निरर्थक जिद भी बेंगलुरू हादसे का बड़ा कारण है। अफसोस कि राजनीति पार्टियां भी इसी ‘थोथे इंवेट कल्चर’ को न सिर्फ पोषित कर रही हैं, बल्कि उसे सत्ता प्राप्ति और श्रेयार्जन का मटेरियल मान रही हैं। आरसीबी जश्न के मातम में तब्दील होने को ही दोष क्यों दें, आॅपरेशन सिंदूर को राजनीतिक रूप से भुनाने और उसे हर संभव तरीके से खारिज करने का सियासी खेल भी इसी मानसिकता से उपजा है। राजनीतिक दांव पिट जाए तो उसे हादसा कहना और हादसे पर फिर राजनीतिक रोटियां सेंकना अब इस देश की सियासी फितरत बन चुकी है। 
यूं हमेशा की तरह कर्नाटक सरकार ने इस हादसे की न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं। उसकी रिपोर्ट आने के बाद कुछ कार्रवाई हो भी हो सकती है या उसे ठंडे बस्ते में डाला  सकता है। मृतकों के परिजनों और घायलों को मुआवजे का ऐलान हो ही चुका है। बेंगलुरू की नई सुबह भी वैसी अफरा तफरी भरी है। बुधवार के हादसे को लेकर राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे को दोषी ठहरा कर हादसे पर राजनीति न करने का सुभाषित पेलती रहेंगी।  हकीकत में उधर प्रशासन से लेकर आईपीएल की आयो‍जक बीसीसीआई तक ने पूरे आयोजन से पल्ला झाड़ लिया है। जिंदगी भर का दर्द सिर्फ उनके हिस्से में रहना है, जिनके युवा बेटे, बेटी, बहन- भाई इस भगदड़ में अपनी जान हमेशा के लिए गंवा बैठे। आरसीबी की जीत को अब वो विजेता टीम भी शायद ही सेलिब्रेट कर पाए, जो यह सोचकर खुश थी कि जश्न का यह मौका 18 साल बाद आया है। घोर मातम में तब्दील हो चुके जीत के इस जश्न पर महान क्रिकेट खिलाडी और आरसीबी प्लेयर विराट कोहली की अत्यंत मार्मिक पोस्ट  है कि मेरे पास कहने के लिए शब्द नहीं हैं। मैं पूरी तरह टूट चुका हूं। लेकिन क्या नेताअो राजनीतिक भूख टूटी है? क्या जीवन के हर पल को इवेंट में बदलने की कुबुद्धि बदली है? क्या सोशल मीडिया वीरों की पल में फेमस होने के लिए किसी भी हद तक जाने की मूर्खतापूर्ण जिद टूटी है? शायद नहीं !  
अजय बोकिल

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